वांछित मन्त्र चुनें

याः सेना॑ऽअ॒भीत्व॑रीराव्या॒धिनी॒रुग॑णाऽउ॒त। ये स्ते॒ना ये च॒ तस्क॑रा॒स्ताँस्ते॑ऽअ॒ग्नेऽपि॑दधाम्या॒स्ये᳖ ॥७७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

याः। सेनाः॑। अ॒भीत्व॑री॒रित्य॑भि॒ऽइत्व॑रीः। आ॒व्या॒धिनी॒रित्या॑ऽव्या॒धिनीः॑। उग॑णाः। उ॒त। ये। स्ते॒नाः। ये। च॒। तस्क॑राः। तान्। ते॒। अ॒ग्ने॒। अपि॑। द॒धा॒मि॒। आ॒स्ये᳖ ॥७७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:77


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजपुरुषों को योग्य है कि अपने प्रयत्न से चोर आदि दुष्टों का वार-वार निवारण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सेना और सभा के स्वामी ! जैसे मैं (याः) जो (अभीत्वरीः) सम्मुख होके युद्ध करने हारी (आव्याधिनीः) बहुत रोगों से युक्त वा ताड़ना देने हारी (उगणः) शस्त्रों को लेके विरोध में उद्यत हुई (सेनाः) सेना हैं उन (उत) और (ये) जो (स्तेनाः) सुरङ्ग लगा के दूसरों के पदार्थों को हरनेवाले (च) और (ये) जो (तस्कराः) द्यूत आदि कपट से दूसरों के पदार्थ लेने हारे हैं (तान्) उनको (ते) इस (अग्ने) अग्नि के (आस्ये) जलती हुई लपट में (अपिदधामि) गेरता हूँ, वैसे तू भी इन को इस में धरा कर ॥७७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। धर्मात्मा राजपुरुषों को चाहिये कि जो अपने अनुकूल सेना और प्रजा हों उनका निरन्तर सत्कार करें और जो सेना तथा प्रजा विरोधी हों तथा डाकू, चोर, खोटे वचन बोलने हारे, मिथ्यावादी, व्यभिचारी मनुष्य होवें, उन को अग्नि से जलाने आदि भयंकर दण्डों से शीघ्र ताड़ना देकर वश में करें ॥७७ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः पुनरेते चोरादीन् प्रयत्नेन निवर्त्तयेयुरित्याह ॥

अन्वय:

(याः) (सेनाः) (अभीत्वरीः) आभिमुख्यं राजविरोधं कुर्वतीः (आव्याधिनीः) समन्ताद् बहुरोगयुक्तास्ताडितुं शीला वा (उगणाः) उद्यतायुधसमूहाः। पृषोदरादित्वादभीष्टसिद्धिः (उत) अपि (ये) (स्तेनाः) सुरङ्गं दत्वा परपदार्थापहारिणः (ये) (च) दस्यवः (तस्कराः) द्यूतादिकापट्येन परपदार्थापहर्त्तारः (तान्) (ते) अस्य, अत्र व्यत्ययः। (अग्ने) पावकस्य (अपि) (दधामि) प्रक्षिपामि (आस्ये) प्रज्वलिते ज्वालासमूहेऽग्नौ। [अयं मन्त्रः शत०६.६.३.१० व्याख्यातः] ॥७७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सेनासभापते ! यथाऽहं या अभीत्वरीराव्याधिनीरुगणाः सेनाः सन्ति, ता उत ये स्तेना ये तस्कराश्च सन्ति, ताँस्तेऽस्याग्नेः पावकस्यास्येऽपिदधामि, तथा त्वमेतानीह धेहि ॥७७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। धार्मिकै राजपुरुषैर्या अनूकूलाः सेनाः प्रजाश्च सन्ति, ताः सततं संपूज्या, या विरोधिन्यो ये च दस्य्वादयश्चोरा दुष्टवाचोऽनृतवादिनो व्यभिचारिणो मनुष्या भवेयुः, तानग्निदाहाद् उद्वेजनकरैर्दण्डैर्भृशं ताडयित्वा वशं नेयाः ॥७७ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. धर्मात्मा राजपुरुषांनी आपल्याला अनुकूल असलेल्या सेनेचा व प्रजेचा सदैव सत्कार करावा व जी सेना व प्रजा विरोधी असेल आणि डाकू, चोर, खोटे बोलणारे व मिथ्यावादी, व्यभिचारी माणसे असतील तर त्यांना अग्नीमध्ये दहन करण्याची भयंकर शिक्षा द्यावी व आपल्या ताब्यात ठेवावे.